"धैर्य" कब तक

"धैर्य" कब तक

बचपन में मिले संस्कारों से,  मानव रूपी मकान का निर्माण होता है, ये संस्कार ही आधार होते है, मानव को आत्मविरश्वासी और मजबूत बनाये रखने में,  ये बात और है कि जिस प्रकार मकान पर बाहरी वातावरण का असर पड़ता है, उसी प्रकार मानव पर वातावरण,परिवेश,संगत का असर देखें जा सकते है, पर संस्कार रूपी नीव मजबूत हो तो गलत रास्ते पर जाने से बचा जा सकता है,

संस्कारों के आधार पर हर इंसान, अपने लिए कुछ आदर्श बनाता है, जैसे कि........ सदा सच बोलना, गलत काम नहीं करना, किसी को दुःख नहीं पहुंचाना, बड़ों का सम्मान करना, धैर्य बनाये रखना, इत्यादि,

आदर्श बनाना और बात है, उस पर कायम रहना और,

      जब इंसान के सामने ऐसे-ऐसे हालात आते है कि उसे अपने ही आदर्शों के विरूद्ध जाकर काम करने पड़ते है, तब वहि हाल होता होगा, जो हाल दिमक लगे मकान की होती है, ऊपर से देखने में मजबूत और सुन्दर दिख रहे मकान की नींव दिमक ने खा ली है, वह मकान कभी भी ध्वंश हो सकता है,

 

                             यह सच्ची कहानी, हमारे पुरोहित जी की है, जो हाथ देखकर लोगों का भविष्य बताते थे, उन्हें खुद नहीं पता था कि उन्हें इस तरह दुनियाँ को छोड़ जाना होगा

पंडित जी का स्वभाव इतना अच्छा कि सब उनका बड़ा सम्मान करतें, मेरे शादी से लेकर, मेरे भाई, बहन सबकी शादी उन्हीं के शुभ हाथों से सम्पन हुआ, मेरे मम्मी घर और ससुराल दोनों स्थान के सारे पूजा-पाठ का कार्य वहि देखते थे, जब भी हमारे घर आते, मैं उनसे बहुत सारी बाते करती, पापा की तरह मुझे समझाते, कि किस तरह सब का मान-सम्मान करना चाहिए,

एक दिन..................

मैं.............. पंडित जी, मैं भगवान से नाराज हूं,

पंडित जी ........ क्यों क्या हुआ,

मैं.............मैं कब से एक कार मांग रही हूं, पर उन्हें सुनाई नहीं दे रहा, मेरा हाथ देखकर बोलिए कार है

               भी या नहीं, मैं धनी कब बनुगी,

पंडित जी ........( हंसते हुए) सब कुछ तो है, तुम्हारे पास धनी की क्या परिभाषा है,

मैं............... जो दिल करे, खरीद सके, चांद-तारे की चाह तो नहीं है, कुछ भौतिक समान चाहिए,

पंडित जी ...... दो देखे तुम्हारा हाथ, क्या लिखा है,(हाथ देखते हुए हंसते है)

मैं.............. क्या हुआ बोलिये,

पंडित जी ..... तुम्हारे हाथ में तो, कुबेर का खजाना है, तुम कार की बात कर रही हो,

मैं................. आप झूठ बोल रहे हो,

पंडित जी ..... अच्छा, ये बोलो तुम्हारा कोई काम पैसे की कमी के कारण रुका है,

मैं................नहीं तो, ये तो मैंने सोचा ही नहीं, पैसे की कमी है पर कोई काम रूकता नहीं, न जाने कब

                  कैसे और कहाँ से रूपये का इंतजाम हो जाता है,

पंडित जी ..... तुम खुद को कभी भी गरीब नहीं समझना, जिसके सिर पर मां-बाप और सास-ससुर का

                   साया हो, वो गरीब कैसे हो सकता है,

मैं............   हां पंडितजी, मेरे अपने मुझसे बहुत प्यार करते है, सब बहुत अच्छे है,

पंडित जी..... तुम हो ही इतनी अच्छी, एक दिन तुम्हारे सारे सपनें पूरे होगे, धैर्य मत खोना,

मैं............. आपकी बातें याद रखुगी, आपके बेटे क्या करते है,

पंडित जी.... दो बड़े बेटे, गांव में खेती और पूजा-पाठ करते है, छोटा वाला बेटा पढ़ने मे तेज है, उसे

                इंजीनियरिंग पढ़ा रहा हूं, और छः महिने की पढ़ाई है,

मैं............ बहुत अच्छी बात है,

पंडित जी……....उस को पढ़ाने के लिए, खेत बेच दिये,10,00,000 रुपया लगा, कोई बात नहीं जब

                कमाने लगेगा तो फिर से खेत खरीद लेगा, अपने पैर पर खड़ा तो हो जायेगा,मै चलता हूं,

                फिर आना होगा,

मैं........ ( पैर छुए हुए) दक्षिणा दी,

6 महीने बाद, आग की तरह पूरे मोहल्ले मे खबर फैली कि पंडितजी का छोटे बेटे की मौत रेल र्दुघटना मे हो गई, कोई सपने में भी नहीं सोच सकता, इतने अच्छे लोग के साथ भगवान इतना बुरा करेगे, उनका हर सपना, हर अरमान उनके बेटे के साथ चला गया, वो इस कदर दुट गये, कि छः महीने से विस्तर पर पड़े रह गये, सबको धैर्य धरानेवाले को, धैर्य कौन धराये, किसी कि हिम्मत नहीं होती कि उनका सामना कर सके, उनके दुःख मे हमसब दुःखी और चिंतित,

'वक्त' बड़े-से- बड़े जख्म को धीरे-धीरे भर देता है, पर एक टिस छोड़ जाता है, जो इंसान के साथ ही जाता है, एक दिन जब मैं उनको देखी तो पहचान नहीं पाई,54 साल के पंडितजी, एक साल के बाद,55 के नहीं बल्की 75 साल के दिख रहे थे, जवान बेटे की मौत ने उन्हें इस कदर तोड़ दिया, अब वो मौत का इंतजार कर रहे थे,

मैं.............. प्रणाम पंडितजी, आइए बैठिए,

पंडितजी...... कैसी हो,

मैं.............. मैं ठिक हूं, आपकी तबियत ठिक नहीं लग रही,

पंडितजी......हां, थोड़ी खराब है, धीरे-धीरे ठिक होगी, क्या कर सकते है, होनी के सामने हमसब लाचार

                 है,जिंदगी मिली है तो हंस या रो कर जीना पड़ेगा,

मैं............ आप ठिक बोल रहे है,

पंडितजी....... ठिक है, आते है (अपने घर चले जाते है )

कुछ महीने बीत गये,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

भादो के महीने का 1st शनिवार, (2010), को सुबह-सुबह 8.00 a.m हो रहा होगा, सुनने मे आता है कि पंडितजी रेल की पटरी पर लेटकर अपनी जान दे दी, उनका शरीर दो हिस्सों मे बंट चुका है, रेल को वही रोक दिया गया है, चारों ओर ट्रैफिक जाम है, यह घटना बर्नपुर और आसनसोल के बीच मे हुई, जहाँ पर रेलवे फाटक नहीं था,

ये बात सुनकर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि हमारे पंडितजी ने आत्महत्या की है,मै सोच मे पड़ गई, जो मेरे लिए आर्दश हुआ करते थे, जो हर एक को हिम्मत देते थे, आज हिम्मत खो चुके है, छोटे बेटे के गम को तो वो सहकर फिर से खड़ा हो ही चुके थे, तो फिर ऐसा क्या किया, जो इतना बड़ा गलत कदम उठाना पड़ा, भगवान की मार को सह लिए, पर उसकी मार को कैसे सहे जिसे गोद में खिलाकर बड़ा किया, क्या बच्चों की मार और अपमानजनक बाते सुनने के लिए, मां-बाप उनकी परवरिश करते है,इस बार वह धैर्य खो दिये,  

                                                              Written by

                                                                   Rita Gupta