कहानियों का ' जन्म ' और उनके ' रूप '

कहानियों का ' जन्म ' और उनके ' रूप '
जब कोई कहानी, मन मे होती है, लेखक कि जान होती है, अपनी जान को जब कोपी पर संभालते हुए बड़े ही प्यार से रखता है, तब लेखक के मन और कोपी के बीच तीसरा कोई नही होता, उस वक्त कहानी नवजात छोटे बच्चें के समान, शुद्धता से पूर्ण होती है, कोई मिलावट नही होता ,
पर....... जब यहि कहानी किसी के मुंह से सुनी जाती है, तब इसमे सुनाने वाले के व्यक्तिव की मिलावट हो जाती है, सुनाने वाले के हाव-भाव के कारण कहानियों का रूप वहि नही रह जाता, कहानी पर सुननेवाले की भी छाप चली जाती है,
अगर....... ये कहानियां नाटकिय रूप मे प्रस्तुत कि जाती है, तो ये और भी मिलावटी हो जाती है, इस पर काम कर रहे, कलाकार की छाप नजर आती है, भले ही यह देखने में मनोरंजन पूर्ण लगे, मगर कहानी अपनी शुद्धता खो चुकी होती है,
मैनें जो कुछ कहा, अपनी अनुभव के आधार पर कहा, "श्री मुंशी प्रेमचंद जी" की सुप्रसिद्ध कहानी 'बुढ़ी काकी' बचपन मे पापा के मुंह से सुनी, और भी लोगों ने सुनाई, एक दिन T.V पर भी इसके नाटकिय रूप को देखा,
पर जब मैंने इस कहानी को खुद पढ़ा तो, उसका अनुभव ही कुछ अलग था, सुनी और देखी अनुभवों से अलग, पढ़ते समय मैं रो दी, जिस काकी के घर से सैकड़ो लोग खाना खा कर गये, वो खुद भूख के मारे मजबूर होकर, लोगों के जूठन से खा रही थी, पढ़ते समय मानो काकी मेरे आंखो के सामने थी,
जिस प्रकार मां के पेट मे, बच्चा सूक्ष्म अवस्था में सोया रहता है, उसी तरह कहानी, हमसब के मन में सोई रहती है, जब इसे कल्पना का ' पंख ' मिलता है तब ये पंख लगाकर उठना चाहती है, उस समय मन के उड़ान से, ऐसी कहानियों का जन्म होता है जो पूर्ण रूप से काल्पनिक होती है,
ये कहानियां डुबतें हुए को, तिनके का सहारा देती है, सिमब्रला की कहानी, जिसमे एक चप्पल, गरीब और दुःखी लड़की को राजकुमार से मिलाता है, ऐसी कहानियां, अंधेरे में एक 'लौ' का काम करती है, एक दिन सब ठिक हो जायेगा, यह समझाते हुए हमें जिंदा रखती है,
ऐसी कोई आंखे नही होगी, जिन्होंने कोई सपना न देखा हो, जब हम जागती हुई आंखों से सपना देखते है तो उसे पूरा करने का प्रयास करते है, इसी प्रयास से सच्ची कहानियों का जन्म होता है, जिसमें कोशिश, हौसला, मेहनत और किस्मत की जरूरत पड़ती है, अधिकांश ऐसी कहानियां किसी की 'आप बिती' होती है,
"बचपन में, कहानी सुने बिना मुझे नींद नही आती थी, मेरी दादी ये सोच-सोचकर परेशान रहती कि, आज रात कौन सी कहानी सुनाई है"
एक रात........
मैं........ दादी बोलों ना, चुप क्यो हो,
दादी...... सो जा बाबु, आज तबियत ठिक नही है,
मैं........ काहानी सुनाने के डर से, तबियत ठिक नही, क्या हुआ है,
दादी........ सिर में दर्द है,
मैं..........मैं सिर में तेल लगा रही हूं, तुम कहानी बोलों
दादी....... कल,
मैं.........नही, छोटा सा
दादी.....एक दिन, एक शेर शहर में चला आया, सोये हुए छःमहिने के बच्चे को लेकर भाग गया,
मैं.........(रोते हुए) फिर क्या हुआ दादी, शेर बाबु को खा गया,
दादी.......तु बोल क्या हुआ होगा,
मैं...... शेर छोटा बाबु को नही खायेगा,
दादी..... तो उसे उठाकर क्यों ले गया,
मैं........ उसे प्यार करेगा, उसका बाबु नही होगा,
दादी......तु ठिक बोली, वो नही खायेगा,
मैं....... दादी, शेर तो जानवर है, वो बाबु को खा सकता है,
दादी...... जानवर है तो क्या, बच्चों से सभी प्यार करते है,
"अब महसुस करती हूं कि दादी की कहानी, मेरे चेहरे के हाव-भाव के अनुसार जन्म लेती थी, दादा-दादी हमारे बीच नही होते हुए, हमारे साथ है "
-Written by
Rita Gupta