इन्सानियत मेरा धर्म

इन्सानियत मेरा धर्म
" बड़े पापा " द्वारा लिखी कहानी………………………………...
स्टेज इस कदर सजाया गया है, जैसे किसी सन्यासी का निवास स्थान हो,खेर और सरकन्डो से बनी एक कुटिया दिखाई देती है, कुटिया के चारो तरफ रंग बिरंगे फूल खिले है,सन्यासी के वेष में एक व्यक्ति दिखाई देता है, वह व्यक्ति खुरपी से अनावश्यक ऊग आये खर-पतवार और घास साफ करता दिखाई पड़ता है, घास-पात पास पड़ी एक टोकरी में रखते जाता है और टोकरी भर जाने पर आश्रम के बाहर फेंक आता है,
वह मारकिन की, घुटनों तक धोती पहने हुए है,सिर पर मारकिन को ही पगड़ी की तरह लपेटे हुए है, उसके कंधे पर एक मारकीन का गमछा है,
नेपथ्य में घोड़ों की टाप और हिनहिनाहट सुनाई देती है, ऐसा माहौल बनता है जैसे बहुत से सैनिक युद्ध अभियान पर निकले हो, कभी-कभी हंसने और बात करने की आवाज वातावरण भयावह लगता है,सन्यासी इन सब बातों से अनजान अपने काम में व्यस्त है, धीर -धीरे घोड़ो की टाप और हिनहिनाहट की आवाज करीब और करीब आती सुनाई देती,
पर्दे के पीछे से कुछ सैनिकों का प्रवेश, सैनिक इस तरह खड़े है, जैसे इनकी संख्या बहुत है, आगे खड़ा व्यक्ति अन्य सैनिको से कुछ अलग दखाई देता है, उसका डील-डौल और पहनावा और सैनिकों से अलग है, उसके चेहरे पर अभिमान की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है, वह सेनापति है,
सेनापति...... लगता है, हम अपने गंतव्य तक आ पहुंचे है,
एक सैनिक..... हाँ श्रीमान, यहि है उस सन्यासी का आश्रम, जिसे कोई सिद्ध, कोई संत
सन्यासी, तो कोई गुरुदेव कहकर बुलाता है,
(अपने काम में मशगूल सन्यासी उनकी ओर मुखातिब होता है)
संन्यासी...... तुम लोग कौन हो ? किस मकसद से आये हो ? मैं तुम्हारी क्या सेवा कर
सकता हूं ? कोई सेवा मेरे योग्य हो तो बताओं ?
सेनापति...... तुम अपना काम करो, देखो बक-बक करने की जरूरत नहीं, मैं गुरुदेव से
मिलने आया हूं, मिलकर चला जाऊंगा, छोटा मुंह- बड़ी बात,( वही घास पर
विश्राम करने की मुद्रा में बैठ जाता है,
सन्यासी...... ठीक है, बैठे रहो, मिलते रहो(वह अपने काम में व्यस्त हो जाता है,)
सेनापति.......( सैनिकों की ओर मुखातिब हो कर) आज बहुत तेज धूप है, जानलेवा गरमी
पड़ रही है, प्यास के मारे गला सूखा जा रहा है, तुम सब एक काम करो, घोड़ों
को पानी पिला लाओं, प्यासे होगे और हां,तुम सब भी जलपान वगैरह से
फारिग होकर शीघ्र यहाँ पहुंचों, शाम होने से पहले हमें अपने मंजिल तक
पहुंचना होगा, आधी रात को जब सब सोये होगे, हमें धावा बोलना है और
फतह हासिल करना है,
सैनिक.......(एक साथ) जैसी आज्ञा,(एक बार फिर नेपथ्य से घोड़ों की टाप और हिनहिना-
हट बात-चीत की शोरगुल और हंसी की मिलीजुली आवाज सुनाई पड़ती है)
सन्यासी.... अच्छा हो अगर तुम भी पानी पी आते, और हो सके तो एक घड़ा पानी आश्रम
के लिए भी लेते आते,
(सन्यासी की बात सेनापति के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाती है और वह क्रोध से आग बबूला हो उठता है) वह खड़ा हो जाता है,
सेनापति.....(उपेक्षा भाव से) हुँह! कहा न, अपने काम से मतलब रखो, बकवास बंद करो
उद्दंड कहीं के, मैं संत से मिलने आया हूं, मिलकर ही जाऊंगा, और सुनो, आज
मैं गुरुदेव के हाथों से ही पानी पीऊंगा,
सन्यासी....... जैसी तुम्हारी मर्ज़ी! बैठे रहो और पानी पीते रहो,
"सेनापति प्यास के मारे परेशान है, वह बार-बार अपनी जीभ होठों पर फिरा रहा है, जीभ से अपने होठ तर करने की नाकाम चेष्टा कर रहा है, गला सहलाता है और थूक निगलने की चेष्टा करता है, वह अपने प्रयास में असफल रहता है, भला थूक से किसी की प्यास बुझी है आज तक, उसका प्रयास ऐसा ही है, जैसे थूक से सत्तू सानना,सन्यासी का संत-भाव जाग उठता है, उसकी यह दुर्दशा देखकर, उसे सेनापति पर दया आती है, वह कुटिया के अंदर जाता है और गिलास में थोड़ा सा पानी लेकर बाहर आता है"
सन्यासी....... प्यास के मारे तुम्हारा बुरा हाल है, घड़े में थोड़ा सा पानी बचा था, ना से हां
भला, लो इसे पी लो और थोड़ी सी प्यास बुझा लो, राहत मिलेगी, उद्विग्न मन
शांत होगा,
सेनापति...... लगता है, तुम मूर्ख के साथ-साथ उद्दंड भी हो, कितनी बार कहूं, मैं गुरुदेव के
हाथों ही पानी पीऊंगा, बेवकूफ कहीं का, जा अपने काम से मतलब रख,
सन्यासी....... तो जाओ अन्दर, गुरुदेव के हाथों से ही पानी पी लो, कुटिया की तरफ मुंह
कर आवाज देता है, गुरुदेव ! अन्दर कोई आपसे मिलने जा रहा है,
सेनापति...... मुझे मालूम था, गुरुदेव मुझे जरूर बुलायेगे, मेरे रुतबे का जरूर ध्यान रखेगे,
"सन्यासी के होठों पर मुस्कान तैर जाती है"
सैनिक अन्दर जाकर इधर-उधर देखता है और आवाज देता है-- गुरुदेव ! आप कहाँ है, गुरुदेव ! मुझे दर्शन दे गुरुदेव ! मुझे आर्शीवाद दे गुरुदेव ! मैं अपने अभिमान में सफल होकर लौटूॅ, और पुनः आपका दर्शन करूॅ, किन्तु कोई अन्दर तो था नहीं जो उसके प्रश्नों का उत्तर देता, वह कोना-कोना झांककर देखता है, किसी को अंदर न पाकर उसका क्रोध बारूद की तरह फट पड़ता है, वह गुस्से से पैर पटकता बाहर आता है और सन्यासी पर बरस पड़ता है,
सेनापति......(सन्यासी से) मूर्ख, अन्दर तो कोई नहीं, एक चींटी भी नहीं, आखिर तुम्हें
मुझसे मजाक करने की सूझी क्यों ? कैसे साहस किया मुझे मुर्ख बनाने की ?
सन्यासी...... शांत-शांत, शांत हो जाओ, लो, पानी पी लो, गुस्सा ठंडा पड़ जायेगा,
सेनापति...... बकवास बंद करो, वरन.............................
सन्यासी....... वरना क्या, मुझे मार डालोगे, यही ना, मार डालना, वह तो कभी भी कर
सकते हो, तुम्हारे हाथ में तलवार जो है, बैठ जाओं, गुस्सा पी जाओं, गुस्सा
नुकसानदायक होता है, अपना ही अनिष्ट होता है, तुम्हारा गुस्सा तुम्हें ही
खा जायेगा, निगल जायेगा, दूसरे को कुछ भी नहीं बिगड़ेगा,
सेनापति....... चुप रह, मुझे उपदेश देना बंद कर, मैं जा रहा हूं,,,,,,, अपने उस अंहकारी
ढोंगी,पाखंडी और बहुरूपिये गुरुदेव से कह देना, इस देश का कुलीन व्यक्ति
(सेनापति) उसके द्वार से खाली हाथ लौट गया,
सन्यासी....... कोई फायदा नहीं, ऐसी उजुल-फजुल बातें सुनने के लिए उनके पास वक्त
कहाँ, अरे हाँ--मैं तो भूल ही गया, तुम्हारे यहाँ आने का मकसद क्या था,
कम-से-कम यह तो बताते जाओं,
सेनापति....... स्वर्ग और नर्क में फर्क क्या है, आखिर स्वर्ग-नर्क है कहाँ ? यही जानने
आया था, यहाँ किन्तु,,,,,,,,,,,,,
सन्यासी.......बस, इतनी सी बात, यह तो मैं भी बता सकता हूं, वैसे तुम बुरा मत मानना,
करते क्या हो ?
सेनापति.......तुम अंधे हो क्या, दिखाई नहीं देता, मैं इस मुल्क का प्रधान सेनापति हूं
( उसके चेहरे पर अभिमान स्पष्ट दिखाई देता है)
सन्यासी.......पर, मुझे तो तुम एक हृदय-हीन बहेलिया और घसियारे के सिवा कुछ और
नजर नहीं आ रहा,
(एक बार फिर सेनापति का अहंकार चोट खाता है)
वह किसी भूखे शेर की तरह दहाड़ उठता है,
सेनापति......मैं तुम्हें मार डालूँगा मूर्ख, अब-तक गुरुदेव का कर्मचारी समझ, क्षमा- पर-
क्षमा करते आया हूं, किन्तु अब तो हद हो गई तुम्हारी गुस्ताखी, नाकाबिले
बरदास्त हो गयी है(सेनापति का हाथ तलवार की मूठ पर चली जाती है, उसने
तलवार खींच ली)
सन्यासी........ ठीक है, बाद में मेरा सर कलम कर देना, लो पहले पानी तो पी लो( जमीन
पर पड़े जल पात्र को उठाकर उसकी ओर बढ़ाता है) कि अचानक सेनापति
जोर से जल पात्र पर लात का प्रहार करता है, जलपात्र झन्न की आवाज के
साथ दूर जा गिरता है, सारा पानी बिखर जाता है,( सन्यासी का चेहरे पर शांत
मुस्कान तैर गयी, मानों सेनापति द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देने का
सही अवसर आ गया) उसने सेनापति की आंखों में झांककर कहा...... बस
बेटा, बस यहि " नर्क " है, यह क्रोध ही नर्क का सृजन करता है,
"यह तलवार ! हाँ, इस तलवार की ताकत पर तुम्हें बेहद नाज है न, किन्तु जिस दिन यह तलवार तुम्हारे हाथ में न होगी, तुम्हारी औकात एक निरीह मेमना से अधिक न होगी, यह तलवार जिस किसी के हाथ में आ जाती है, उसे मानव से दानव बना देती है, मानवता से कोसों दूर ले जाती है, हिंसा का पाठ पढ़ाती है, हिंसा जो विनाश की ओर ले जाता है, सृजन इसके काबू से बाहर है,इसके बल पर किसी भू-खंड पर राज किया जा सकता है, दिलों पर नहीं, दिलों पर राज करने के लिए प्यार की तलवार चाहिए जो बिना रक्तपात के दिलों पर राज करने का रास्ता साफ करता है, प्यार मोहब्बत में वो ताकत है, जो तुम्हारी इस तलवार में कतई नहीं, तुम अपने सैनिकों के साथ भू-खंड जीतने जा रहें हो, दिल नहीं, जो एक अनाधिकार चेष्टा है”
(सेनापति प्यास से परेशान, बदहाल जीभ से अपने होठों को तर करने का असफल प्रयास करता है, अचानक सन्यासी कुटिया के अन्दर जाता है और जलपात्र में थोड़ा पानी लेकर आता है,)
सन्यासी........ अभी तो तुम्हें सिर्फ और सिर्फ पानी चाहिए, पानी के सिवा कुछ नहीं, लो,
पानी पी लो,शांती मिलेगी, राजभोग से भी अधिक खुखदायी शांती !
(सेनापति सन्यासी के हाथ से जल पात्र ले लेता है और गटागट एक ही साँस सारा पानी पी गया और जल पात्र नीचे रख दिया,)
सन्यासी....... और वत्स ! अभी तुम पानी पीकर स्वर्ग के सुख का लाभ पा रहे हो, यह
पानी सदाचार का प्रतीक है, सदाचार शांति का माहौल तैयार करता है, शान्त
परिवेश में प्रगति का मार्ग साफ होता है, जहाँ प्रगति होती है, सुख स्वयं चल
कर आता है और जहाँ सब सुखी है वहीं स्वर्ग है, अभी तुम स्वर्ग में विचरण
कर रहे हो,
“सेनापति कर्तव्य विमूढ़ सन्यासी की बात सुने जा रहा है, उसके चेहरे की भाव भंगिमा से ऐसा लगता है, जैसे बात उसकी समझ में आ रही है, तलवार जो पहले तनी हुई थी, धीरे-धीरे नीचे होती जा रही है, और यह क्या ? एक झटके के साथ पैरों से जोर लगाकर सेनापति तलवार के दो टुकड़े कर सन्यासी के पैरों में रख देता और फफक-फफक कर रोने लगता है, रोते-रोते उसकी हिचकी वध जाती है, सन्यासी चुपचाप खड़ा उसे तब-तक रोने देता है, जब-तक वह स्वयं चुप नहीं हो जाता, जब उसकी हिचकी और रोना शांत होता है”
सन्यासी........ वत्स अब तुम स्वर्ग की सैर कर रहे हो, स्वर्ग की स्वर्ण राश्मियाँ तुम्हारें
हृदय को प्रकाशमान कर रही है, मुक्ति का द्वार खुला है, मुक्त हो जाओ,
तुम्हारें अन्त:करण की मैल तुम्हारें प्रायश्चित के आँसुओं से धुल कर निर्मल
हो चुकी है, तुम्हारे अंदर का हिंसक पशु तुम्हें छोड़कर जा चुका है, वह
देखो--( दूर क्षितिज की ओर इशारा करते हुए)
“मानवता का प्रकाश तुम्हारे अन्दर के अंधकार को प्रकाशित करने दौड़ा चला आ रहा है, उठ बेटा उठ आत्मसात कर ले, मानवता से मानव को जोड़ने का प्रयास कर, पाप- पुण्य, स्वर्ग-नर्क, की गलत परिभाषा बताने वाले पाखंडी धर्म के ठेकेदारों से खुद बचों और दूसरों को बचाने की प्रयास कर,अरे हाँ, मैं तो अपना परिचय देना भूल गया, तुमने न तो पूछा, न मैं बताया, पर लो---मैं स्वयं अपना परिचय दे देता हूं, यहां इस कुटियां के इर्दगिर्द दूर तक कोई नहीं रहता, इस सूनसान निर्जन जगह पर मैं स्वयं अकेला रहता हूं, अपने इन दो हाथों और खुरपी की सहायता से इतना कुछ पैदा कर लेता हूं, कि स्वंय खा पी सकूँ और किसी भूखे की भूख मिटा सकूं, किसी प्यासे की प्यास बुझाकर मन को शांती मिलती है,
कोई मुझे सिद्ध कहता है, कोई फकीर, तो कोई गुरू, पर....... इनमें से कोई मैं नहीं हूं, मैं तो एक साधारण आम आदमी की तरह इन्सान हूं बस, इन्सानियत मेरा धर्म है, इंसानियत को अधिक-से अधिक अपने अंदर समाहित करने की चेष्टा करता हूं, हिंसा से मुझे घृणा है," अहिंसा परमों धर्म" में मेरी पूर्ण आस्था है, पुत्र यही है मेरा परिचय, बस....................
written by Brahamdev Prasad.